Re-sharing an old poem for Indispire prompt #335.
(Why is it so difficult to establish the truth? Why is it called naked truth? Does truth really win? #NakedTruth)
मैं निकला सत्य के
संधान में |
दिन दहाड़े , डायोजिनिज के लालटेन ले के
राजधानी के राजपथ पर,
सत्ता के गलियों में,
कलाकारों के रंग मंच में,
मंदिर , मस्जिद और गिरिजाघरों में |
ढ़ूँढ़ता रहा
वो सच्च जो कबका खो गया है,
या सुलाया गया है,
राजनेताओं के सफाई , आरोप
और प्रत्यारोप में,
पत्रकारों के हल्ला में,
क्रांतिकारियों के हल्लाबोल में,
धर्म गुरूओं केशास्त्रार्थ में,
बाबूओं के फाइलों के नोटिंगस् में
विचारपत्तियों के लम्बी – लम्बी
आदेशों में |
सभी ने एक साथ बोला
सच्च का पता लगा तो
गजब हो जाएगा,
देश बरबाद हो जाएगा,
आखिर लोग भी तो अभी कच्चे हैं
सच्च को छूपाने में
है हमारी समझदारी
और हमारी जिम्म्दारी भी
फिर कोई एक मुझे चुपके से कहा
” आखिर दूकान भी तो चलाना है ” !!!
Mein nikla satya ke sandhan mein
Din dahade, Diogenes ke laltan leke
Rajdhani ke rajpath par
Satta…
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राजनीति के कड़वे सच की बहुत ही स्पष्ट शब्दों में अभिव्यक्ति👌👌
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आख़िर दूकान भी तो चलाना है । यही वह व्यावहारिक सच है दुर्गा प्रसाद जी जिसके आगे आदर्शवादी सच हार मान बैठता है ।
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Nice blog
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बहुत बढ़िया,
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